अल सुबह देखा था मैंने
भोर का तारा।
वह फ़लक पर था अकेला
फूल सा तारा।
झाँक खिड़की से निहारा
प्यार से मुझको
मौन मन कुछ कर इशारा
बढ़ गया तारा।
छोड़ आलस, त्याग बिस्तर
जब पुनः देखा,
अब वहाँ से हट गया था
मनचला तारा।
जल्दी-जल्दी, मैं उतरकर
आ गई पथ पर
मुस्कुराकर साथ मेरे
चल पड़ा तारा।
ज्यों सलोनी सूर्य किरणें
छा गईं नभ में,
आसमाँ के अंक में
छिपने लगा तारा।
रह गई विस्मित
उसे मैं देखकर ढलते
मौन होकर रह गया था
चुलबुला तारा।
काश! हर प्रातः दिखे
सूनी सी खिड़की से
दे सदा ऊर्जस्विता
जीवन भरा तारा।
-कल्पना रामानी
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